Wednesday, December 19, 2018

दक्षिण यम की दिशा मानी जाती है।
पूर्वज पुरखों की दिशा होती है।
मृत्यु की दिशा होती है।
अमात्य की दिशा होती है।
च सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं:
  • चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
  • सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना

विश्वकर्मा (त्वष्टा) – की पुत्री संज्ञा (त्वाष्ट्री) – से जब सूर्य का विवाह हुआ तब अपनी प्रथम तीन सन्तानों वैवस्वत मनु, यम तथा यमी (यमुना) – की उत्पत्ति के बाद उनके तेज को न सह सकने के कारण संज्ञा अपने ही रूप-आकृति तथा वर्णवाली अपनी छाया को वहाँ स्थापित कर अपने पिता के घर होती हुई ‘उत्तरकुरु’ में जाकर छिपकर वडवा (अश्वा) – का रूप धारण कर अपनी शक्त्ति वृद्धि के लिये कठोर तप करने लगी। इधर सूर्य ने छाया को ही पत्नी समझ तथा उसमें उन्हें सावर्णि मनु, शनि, तपती, तथा विष्टि (भद्रा) – ये चार सन्तानें हुईं। जिन्हें वह अधिक प्यार करती, किन्तु संज्ञा की सन्तानों वैवस्वत मनु तथा यम एवं यमी का निरन्तर तिरस्कार करती रहती।
माता छाया के तिरस्कार से दुःखी होकर एक दिन यम ने पिता सूर्य से कहा – तात! यह छाया हम लोगों की माता नहीं हो सकती; कयोंकि यह हमारी सदा उपेक्षा, ताड़न करती है और सावर्णि मनु आदि को अधिक प्यार करती है। यहाँ तक कि उसने मुझे शाप भी दे डाला है। सन्तान माता का कितना ही अनिष्ट करे, किन्तु वह अपनी सन्तान को कभी शाप नहीं दे सकती। यम की बातें सुनकर कुपित हुये सूर्य ने छाया से ऐसे व्यवहार का कारण पूछा और कहा – सच-सच बताओ तुम कौन हो ? यह सुनकर छाया भयभीत हो गयी और उसने सारा रहस्य प्रकट कर दिया कि मैं संज्ञा नहीं, बल्कि उसकी छाया हूँ।
सूर्य तत्काल संज्ञा को खोजते हुये विश्वकर्मा के घर पहुँचे। उन्होंने बताया कि भगवान् ! आपका तेज सहन न कर सकने के कारण संज्ञा अश्वा (घोड़ी) – का रूप धारण कर उत्तरकुरु में तपस्या कर रही है। तब विश्वकर्मा ने सूर्य की इच्छा पर उनके तेज को खरादकर कम कर दिया। अब सौम्य शक्त्ति से सम्पन्न भगवान् सूर्य अश्वरूप से वडवा (संज्ञा-अश्विनी)- के पास उससे मिले। वडवा ने पर पुरुष के स्पर्श की आशङ्का से सूर्य का तेज अपने नासा छिद्रों से बाहर फेंक दिया। उसी से दोनों अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई, जो देवताओं के वैद्ध हुये। नासों से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम नासत्य भी है। तेज के अन्तिम अंश से रेवन्त नामक पुत्र हुआ। इस प्रकार भगवान् सूर्य का विशाल परिवार यथास्थान प्रतिष्ठित हो गया। यथा-वैवस्वत मनु वर्तमान (सातवें) मन्वन्तर के अधिपति हैं। यम यमराज एवं धर्मराज के रूप में जीवों के शुभाशुभ कर्मों के फलों को देने वाले हैं। यमी यमुना नदी के रूप में जीवों के उद्धार में लगी हैं। अश्विनी कुमार (नासत्य-दस्त्र) देवताओं के वैद्ध हैं। रेवन्त निरन्तर भगवान् सूर्य की सेवा में रहते हैं। सूर्य पुत्र शनि ग्रहों में प्रतिष्ठित हैं। सूर्य कन्या तपती का विवाह सोमवंशी अत्यन्त धर्मात्मा राजा संवरण के साथ हुआ, जिन से कुरुवंश के स्थापक राजर्षि कुरु का जन्म हुआ। इन्हीं से कौरवों की उत्पत्ति हुई। विष्टि भद्रा नाम से नक्षत्र लोक में प्रविष्ट हुई। सावर्णि मनु आठवें मन्वन्तर के अधिपति होंगे। इस प्रकार भगवान् सूर्य का विस्तार अनेक रूपों में हूआ है। वे आरोग्य के अधिदेवता हैं –
‘आरोग्यं भास्करादिच्छेत्’ (मत्स्यप्0 68/41)
(गीता प्रैॅस द्वारा प्रकाशित कल्याण पत्रिका से लिया गया)

एक माल ऐसी भी जपें के

साँस लें तो राम छोड़ें तो हनुमान